राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर लिए हैं, और इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नागपुर यात्रा ने संघ के बढ़ते प्रभाव और भविष्य की दिशा पर चर्चा को तेज कर दिया है। RSS समर्थकों के लिए यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है, जबकि आलोचकों के लिए यह भारतीय राजनीति और समाज पर संघ की गहरी पकड़ को लेकर चिंता का विषय है।
RSS: सांस्कृतिक संगठन या राजनीतिक रणनीतिक केंद्र?
RSS खुद को एक सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन इसके 100 वर्षों के इतिहास में इसका राजनीतिक हस्तक्षेप लगातार बढ़ा है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान खुद को निष्क्रिय रखने वाला यह संगठन आज भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति—भारतीय जनता पार्टी (BJP)—का विचारधारात्मक आधार बन चुका है। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकार और संघ के बीच की नजदीकियां और मजबूत हो रही हैं।

संघ के समर्थक इसे राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक चेतना के वाहक के रूप में देखते हैं। वे दावा करते हैं कि संघ की शाखाओं के माध्यम से अनुशासन, राष्ट्रभक्ति और सामाजिक सेवा की भावना को बढ़ावा दिया जाता है। वहीं, आलोचक इसे एक संकीर्ण विचारधारा को थोपने वाला संगठन मानते हैं, जिसका उद्देश्य केवल एक खास सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करना है।
लोकतंत्र और विचारधारा की टकराहट
RSS की बढ़ती भूमिका के कारण लोकतंत्र और सत्ता संतुलन पर बहस होना स्वाभाविक है। संघ के आलोचकों का मानना है कि यह संगठन बहुलतावाद की बजाय एकरंगी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता है। खासतौर पर, सरकारी नीतियों, शिक्षा व्यवस्था और इतिहास लेखन में संघ के प्रभाव को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
हालांकि, संघ के समर्थकों का कहना है कि उसने समाज सेवा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कोविड महामारी के दौरान RSS कार्यकर्ताओं ने राहत कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इसके अलावा, शिक्षा और स्वदेशी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कई संस्थान स्थापित किए गए हैं। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या ये प्रयास समावेशी हैं या केवल संघ की विचारधारा के अनुरूप हैं?
संघ की सामाजिक भूमिका: सेवा या विचारधारा का विस्तार?
RSS ने विभिन्न आपदाओं के दौरान राहत कार्यों में हिस्सा लिया है, लेकिन क्या यह सेवा निष्पक्ष रही है? कई बार संघ से जुड़े संगठनों पर आरोप लगे हैं कि वे केवल एक विशेष विचारधारा से जुड़े लोगों को ही प्राथमिकता देते हैं। इसी तरह, सरकारी संस्थानों में संघ समर्थित नीतियों और पाठ्यक्रमों का प्रवेश भी बहस का विषय बना हुआ है।
संघ समर्थक इसे भारतीय संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने का प्रयास मानते हैं, जबकि आलोचक इसे भारत की बहुलतावादी पहचान को सीमित करने का प्रयास कहते हैं। संघ के प्रभाव में सरकारी निर्णयों का आना एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए कितना सही है, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
भविष्य की राह: समावेशी संगठन या संकीर्ण एजेंडा?
100 वर्षों की यात्रा के बाद यह सवाल उठता है कि संघ का भविष्य क्या होगा? क्या यह एक समावेशी संगठन बनेगा, जो सभी विचारधाराओं को जगह देगा, या फिर यह अपनी पारंपरिक सोच पर ही अडिग रहेगा? संघ के प्रभाव से भारत में राजनीतिक और सामाजिक विमर्श बदला है, लेकिन यह बदलाव लोकतंत्र के लिए सकारात्मक है या नकारात्मक, यह बहस अभी जारी है।

संघ ने एक सदी तक भारतीय समाज में अपनी पहचान बनाए रखी है, लेकिन आने वाले वर्षों में इसे यह तय करना होगा कि क्या यह केवल एक राजनीतिक शक्ति का आधार बना रहेगा, या वास्तव में समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण में निष्पक्ष भूमिका निभाएगा। प्रधानमंत्री मोदी की नागपुर यात्रा और RSS के 100 वर्षों का जश्न केवल संगठन की उपलब्धियों का उत्सव था या सरकार-संघ के संबंधों को और मजबूत करने की रणनीति, यह आने वाले समय में और स्पष्ट होगा।