परीकथाओं में सुना था, रात को पिशाच आते हैं, चैन से सो रहे लोगों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं, तेलांगाना के कांचा गचीबावली जंगल में जो हुआ उसे देखकर कोई शक नहीं वो राक्षसी कहानियां इन्हीं नजारों से कभी बनी होंगी. तेलंगाना सरकार ने खुद को जल्लाद साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हैदराबाद यूनिवर्सिटी के पास 400 एकड़ में फैले कांचा गचीबावली जंगल में सरकार ने रात में बुल्डोजर चलवा दिए। इस सरकारी जमीन पर अतिक्रमण हुआ है।
क्या जंगल का ढ़ांचा अवैध है? और यहां पर कई घुसपैठिए जानवर यहां बिना आधार कार्ड के रह रहे थे?
दिन में सरकार बुल्डोजर इसलिए नहीं चला पाई क्योंकि छात्रों और पर्यावरण के शुभचिंतकों ने विरोध किया। सवाल ये है ऐसी क्या आफत थी कि सरकार किसी समझौते का इंतजार नहीं कर सकी?
फिर एक बार उस वायरल तस्वीरों को अपने जहन में सोचिए फिर तय कीजिए कि वहां कितने ही जंगली जानवर बेघर हो गए। तेलंगाना सरकार इस जंगल को काटकर यहां पर आइटी पार्क और इंडस्ट्रियल एरिया बनाना चाहती है। इसके लिए वे इस हद तक जिद पर अड़ी हुई है कि सबके मना करने के बावजूद यहां पर ही पार्क और इंडस्ट्रियल एरिया बनाना चाहती है, क्या सरकार को इस काम के लिए पूरे तेलंगाना में कोई भी खाली पड़ी जगह नजर नहीं आयी? आखिर सरकार को जंगल काटकर ही विकास क्यों करना है, क्या इसके लिए उन्हें कुछ नीजी फायदा हो रहा है?
यूनिवर्सिटी ने कहा कि हमारे साथ मिलकर कोई सर्वे नहीं हुआ, छात्र इसका विरोध कर रहे हैं, आम लोग विरोध कर रहे हैं, पूरा देश विरोध कर रहा है और सरकार धृतराष्ट्र बनी हुई है।
दलील है कि जमीन सरकारी है और कागजों पर सरकारी उपयोग के लिए उपलब्ध है। सरकारी लोगों को कागज पर लिखा हुआ दिखा और बुल्डोजर धरके चल दिए तबाही मचाने। इन्हें अपनी आंखों से सामने 400 एकड़ का जंगल नहीं दिखा, चीखते चिल्लाते जानवर नहीं दिखे, प्रदर्शन करते लोग नहीं दिखे. दिखा तो बस किसी सरकारी दफ्तर में एक फाइल में रखा हुआ कागज जिसमें लिखा है कि सरकार इस जमीन का इस्तेमाल कर सकती है।
और,
इनकी बेशर्मी तो देखिए… मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी बाद में कहते हैं वहां जंगली जानवर तो नहीं लेकिन दुष्ट लोमड़ियां जरूर हैं जो लोगों को भड़का रही हैं। रेवंत रेड्डी को शायद इस बात का खयाल नहीं है कि गिने चुने राज्यों में तो कांग्रेस की बची-खुची सरकारें हैं। वो वहां भी अपना बेड़ागर्क करने पर तुले हैं। राजनीति की बात करें तो सिर्फ कांग्रेस का ही ये हाल नहीं है, छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगलों को सरकारों ने कबसे अडाणी समूह की दया पर छोड़ा हुआ है वहीं उत्तराखंड की धामी सरकार ऋषिकेश-देहरादून के बीच सड़क चौड़ीकरण के नाम पर तीन हजार से ज्यादा पेड़ों को काटने पर तुली हुई है। हर जगह लोग विरोध करते हैं, और सरकारें कान में रुई ठूंस के बैठी रहती है।
अब जरा नजर डालते हैं कुछ आंकड़ों पर –
साल दो हजार से 2023 तक तेलंगाना में जंगल बढ़े हैं. कुल 9.1 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के साथ। हैरान न हों, गणित जरा टेड़ी है। छत्तीसगढ़ में दशमलव 3 और उत्तराखंड में दशमलव 2 प्रतिशत जंग बढ़े। अब पेंच यहां फंसता है कि जंगल बढ़ गए तो जैव विविधता कैसे घट गई। तेलंगाना में पेड़-पौधों की प्रजातियों में 3 से पांच प्रतिशत की गिरावट आई। जानवरों की विविधता में 9-10 प्रतिशत का नुकसान हुआ और करीब 4-6 विलुप्त होने की कगार पर हैं। छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसे ही आंकड़े हैं, यहां 8-10 प्रतिशत पैड़ पौधों की प्रजातियां कम हो गई, 12 से 15 प्रतिशत जानवरों की और 6-9 प्रजातियां विलुप्त होने का खतरा झेल रहीं हैं। उत्तराखंड में भी जंगल बढ़ने के बावजूद पेड़-पोधों की विविधता में 2-3 प्रतिशत की गिरावट आई। जानवरों की विविधता 5-7 प्रतिशत का नुकसान हुआ और 5 से 7 प्रजातियां गायब होने का खतरा झेल रही हैं।
जब जंगल बढ़ रह हैं तो फिर जैव विविधता क्यों घट रही है। जवाब सीधा सा है, जंगल किसी और जगह के काटे और पर्यावरण के नाम पर किसी और प्रजाति के पेड़ कहीं और लगा दिए। सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चल दी। पेड़ तो चलो लगा भी दिए, जानवरों को दूसरी जगह कैसे पैदा करते।
चीते तो अफ्रीका से मंगवा दिए, क्या बाकी जानवर भी विदेशों से इंपोर्ट करोगे। घने जंगल बढ़े क्योंकि कई जगह उन्हें सुरक्षित कर दिया गया। लेकिन कांचा गचीबावला, जो एक प्राकृतिक जंगल है और कई जानवरों का घर है महज इसलिए उजाड़ देना सही है कि वो कागजों पर सुरक्षित नहीं है. इस घटना पर आपकी राय क्या है हमें कमेंट कर बताएं.